गंगा तथा अन्य कविताएँ
गंगा
उसे बहते हो गईं सैंकड़ों सदी है
बहे जिस में सभी पुण्य सारी बदी है
जीवनदायिनी जो है भारतभूमि हित
गंगा नदी का नाम न केवल नदी है ।
इस के किनारे पले कितने शहर ग़ाम
बसे कितने तीर्थ हैं कितने पुण्य धाम
चिता की राख पड़ती है गंगा घाट पर
आत्माएँ पहुँचती यहीं से स्वर्ग धाम ।
कोई धनी हो या रंक हो नंगा
गंगा में नहा कर मन हुआ चंगा
हम अभागे रख न पाए इसे शुद्ध
सब के पाप धोती जा रही गंगा ।
ग़रीबों के लिए कठौती में बसी गंगा
करोड़ों हित स्वर्ग की नसैनी यही गंगा
पुण्यजल में स्नान करने चले आते सदा
करोड़ों जनों की आस्था का केन्द गंगा ।
पिता
जीवन पिता ने दिया जीवन पिता का
तन पिता की देन है यह मन पिता का
हम पिता का दिन मनाएँ कृतज्ञता से
एक दिन ही नहीं हर दिन पिता का ।
हिमालय सामने शीश यह झुकता नहीं
पिता के सामने मूर्ख ही झुकता नहीं
ज़िन्दगी के क़र्ज तो चुकाने पड़ेंगे
क़र्ज माता पिता का कभी चुकता नहीं ।
माँ की याद
मेरे खुरदुरे माथे पर
अंकित हैं कई कई दु:ख
पर माँ की ममता की बदली के नीचे
ओझल था पहाड़ सा दु:ख ।
माँ
एक शब्द नहीं
महाकाव्य है
ममता व्यथा समर्पण का
जिसे सुनता रहा अनेक अनेक वर्षों तक
अब भी उस का स्वर
गूँजता है कानों में ।
अब मेरा माथा
दु:खों की चोट से
और खुरदुरा हो गया है
उम़ की सलवटों ने
कर दिया उसे बदरंग
पर अब भी
माँ की याद आने पर
आँखों में उतर आता है सावन ।
माँ की मौत
माँ की मौत
ख़बर नहीं अख़्बार की
जो सुन कर बासी हो जाए
पढ़ कर फेंक दी जाए ।
माँ की मौत
एक चीख़ है
दिल की घाटियों की गूँज
रात के सन्नाटे में ,
एक टीस है
भीतर कहीं से उठ कर
धमनियों में ख़ून के साथ बहती है
मनहूस उदास एकान्त में ।
माँ की मौत है
ममता का अकाल
ज़िन्दगी के एहसास में कमी
विश्वास को गहरी ठेस
भरी पूरी दुनिया का शून्य
भीड़ में अकेलेपन की चोट ।
काश ! मैं यह सब समझता
माँ के रहते ।
डा सुधेश
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैैक्टर १०
नई दिल्ली ११००७५
फ़ोन ०९३५०९७४ १२०